हमारा चिकित्सा जगत;(1/3/17)
हार्ट अटैक के मरीजो का दर्द वह नहीं जो सिनेमाई पर्दो पर दिखाया जाता है. धमनियों में जमे अपने ही खून की पीड़ा सहते मरीज़ के सामने राहत की कोई भी कीमत छोटी लगती है. जिनके सीने में ‘स्टेंट’ लगे हों, बड़ी कीमत दे कर भी उनके चेहरे पर उदासी नहीं, राहत की मुस्कान दिखती है. जब से पता चला है धमनियो में डाले गए स्टेंट के लिए हज़ार गुना तक ज्यादा कीमत ली गयी है, मरीज़ों का दर्द फिर से उभर आने का खतरा बढ़ गया है. सोचना भी मुश्किल है कि दर्द वाले इंसानी डॉक्टर इतने बेदर्द इंसान भी हो सकते हैं. डॉक्टरों का भगवान जैसा दिखने वाला चेहरा एक झटके में जल्लाद सा दिखने लगा है. वसुधैव कुम्बकम वाले इस देश में दर्द से तड़पते मरीज़ से उनकी जान की मुहमांगी कीमत कैसे ली जा सकती है ? आखिर कब तक हम डॉक्टरों को भगवान समझने की भूल करते रहें रहेगें. क्यों न इस ”लाइफगेट” को दूसरे सकैमों की तरह ही एक अपराध माना जाये ?
प्रेषक —-एमके मिश्रा, माँ आनंदमयी नगर, रातू, 835222 रांची%9430751169
क्या शादियों की उपभोक्तावादी संस्कृति पर रोक लग सकेगी?(२६/२/१७)
हमारे देश में शादियों को पद-प्रतिष्ठा का मानक मान लिया गया है। शादियों के आयोजन के लिए महीनों पहले तैयारी शुरु कर दी जाती है। मेहमानों के स्वागत में किसी प्रकार की कोई कमीवेशी न रहें इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। शादियों में किये गये खर्च की चर्चा रिश्तेदारों और सगे-संबंधियो के बीच कई दिनों तक चलती है। आजकल की शादियां भले वो निम्न तबके की हो या फिर मध्यम-ऊंच तबके की सब में उपभोक्तावादी संस्कृति का असर घुलना आम हो गया है। आज कोई भी शादी बाजारवाद के भौंड़े प्रदर्शन से अछूती नहीं है। ऐसे हालातों में जहां शादियों के नाम पर अनाप-शनाप फिजूल खर्ची की जा रही है और बिजली को अंधाधुंध तरीके से फूंका जा रहा है, खाद्यान्न सामग्री का बड़े स्तर पर अपव्यय किया जा रहा है।
इस संदर्भ में जम्मू-कश्मीर सरकार ने एक सराहनीय कदम उठाया है। जम्मू-कश्मीर सरकार शादियों के आयोजन के लिए खास नियम जारी करने जा रहे है। यह नियम निम्न प्रकार होंगे – लड़के की शादी में 400 से अधिक मेहमान आमंत्रित नहीं किये जा सकेंगे व लडकी की शादी में मेहमानों की संख्या 500 से अधिक नहीं होनी चाहिए। शगुन, जन्मदिन या अन्य कोई छोटा समारोह है तो उसमें 100 से अधिक मेहमान बुलाने पर सरकारी कार्रवाई होगी। शादी समारोह में मेहमानों को सात सब्जियों से अधिक नहीं परोसी जा सकती, चाहे वो शाकाहारी हो या मांसाहारी। दो से अधिक मिष्ठान नहीं दे सकते। अगर समारोह में खाने-पीने के लिए प्लास्टिक सामग्री का इस्तेमाल हुआ तो समारोह खत्म होने के बाद इसका उचित निपटारा करना होगा, अन्यथा कार्रवाई होगी। ऐसे समारोहों में डीजे बजाने व आतिशबाजी करने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध रहेगा। नियमानुसार शादी के आमंत्रण पत्र के साथ दिये जाने वाले सूखे मेवे और मिठाई जैसे उपहारों पर भी रोक लग जायेंगी। राज्य में यह आदेश एक अप्रैल से लागू हो जायेंगा तथा आगामी विधानसभा सत्र में सरकार इसे कानूनी अमलीजामा पहनाने की कवायद भी करती दिखेंगी।
पिछले दिनों ऐसा ही कानून बनाने के लिए बिहार से कांग्रेस के सांसद रंजीत रंजन ने भी शादियों में खाने की बर्बादी रोकने और विवाह का पंजीकरण कानूनी रूप से अनिवार्य करने का एक निजी विधेयक लोकसभा में पेश करने का प्रस्ताव रखा था। जिसे कानून मंत्रालय ने मंजूरी के लिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास भेज रखा है। सरकार द्वारा शादी-समारोहों में हो रही धन‚ अन्न और प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी पर पाबंदी कसने के लिए लाया जाने वाला ये कानून वक्त की मांग है पर कानून की व्यावहारिकता पर कई सवाल उमड़-घुमड़ कर सामने आते है। मान लें कि किसी शादी समारोह में लडके की शादी में नियत संख्या से एक या दो जने ज्यादा हुए तो क्या सरकारी कर्मी गिनती करने आयेंगे ? क्या एक और दो लोगों के कारण शुभ मांगलिक अवसर पर कानूनी दंड देकर शादी को रुकवा देंगी ? अथवा एक और विभाग को घूस खोरी का अवसर प्राप्त होगा. क्या कानून बनने के बाद सरकारी महकमे के समस्त पदाधिकारी सारा काम छोड़कर आमंत्रण पत्र बांटने वालो के साथ घर-घर घूमेंगे इसकी पड़ताल करने के लिए कि कई आमंत्रण पत्रों के साथ मिठाई और मेवा तो नहीं बांटा जा रहा है। निश्चित रूप यह व्यावहारिक नहीं है सिर्फ कनून का दार दिख कर सरकारी कर्मचारियों के लिए मलाई मरने के अवसर अवश्य मिल जायेंगे.
खैर ! आशा अमर धन है तो आशा यह की जानी चाहिए कि आने वाला कानून औपचारिकता के चंगुल से बाहर निकलकर धरातल पर अपना असर कायम करने में सफल हो पायेंगा। कानून बनाते समय उसकी व्यवहारिक स्थिति पर अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए. अन्यथा कानून का उद्देश्य समाप्त हो जायेगा और यह कानून भ्रष्टाचार की एक और कड़ी साबित होगा . (प्रेषक—-देवेन्द्र राज सुथार)
सोशल इवेन्टस से समाज मे फैलती है जागरूकता;(20/2/17)

अंगूठा ही ‘पिन‘ बन जाये.
विकास की दौड़ में कौन कंहा छूट जाये मालूम नहीं. देश इन दिनों कैशलेस की राह पर चल पड़ा है. आश्चर्य नहीं कि दूकानों पर ‘नो क्रेडिट’ की जगह ‘नो कैश’ का बोर्ड टंगा मिले. इस रास्ते चलते हुए एटीएम के सामने रुका तो मन में सवाल आया एटीएम पिन डालने से सिर्फ ‘तारे’ ही क्यों दिखते है ? मैं नहीं जानता शायद मेरे जैसे बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि हमारा कोड हम से ही अदृश्य क्यों है ? जब कि कुछ लोग बड़ी आसानी से देख ही नहीं सकते बल्कि चुरा भी सकते हैं. पिन डालते हुए कभी तो लोगों का विश्वास डगमगाता होगा. कुछ लोग तो होंगे जिन्हें कोड देखने की जरूरत पड़ती होगी. बैंक समय-समय पर ‘पिन’ बदलने की भी सलाह देते हैं. मगर कोई इतने ‘पिन’ कंहा से लाये जो अभेद्य और अविस्मरणीय हो. इन बातों का ध्यान रखते हुए क्यों न एटीएम को ‘आधार बॉयोमीट्रिक्स’ से जोड़ दिया जाये. हमारी पुतली या अंगूठा ही ‘पिन’ बन जाये तो न चुराने का भय रहेगा न छुपाने की चिंता.
एमके मिश्रा,माँ आनंदमयी नगर, रातू, 835222 रांची%
महोदय, पत्र को प्रकाशित करने की कृपा करें(5फरवरी २०१७)एम् के मिश्रा
शकुन-अपशकुन
रूढ़िवादी परम्पराओं से शिकायत नहीं मगर भय है, परंपराएं किसी मासूम पर भारी न पड़ जाएँ. पीढ़ियों से शकुन-अपशकुन का समाया भय किसे नहीं डराता. ग्रामीण क्षेत्रों की गलियों में टोना-टोटकों के डरावने निशान आज भी मिल जाएँगे. परंपराएं गांव और शहर में फर्क नहीं करती. सभी जानते हैं कारोबार नीबू-मिर्ची के भरोसे नहीं चलता है फिर भी इस भेड़चाल ने शहर को पूरी तरह जकड रखा है. सुना है लाखों का व्यापार करता ‘टोटकों’ का बाजार शहर का नया स्टार्टअप है. शुभ-लाभ के लिए शकुन-अपशकुन का ख्याल रखना बुरी बात नहीं मगर पुराने नीबुओं को बीच सड़क पर फेक देना अच्छी बात है क्या ? घर से बाहर जाती अपनी औलाद के लिए हर मां दुआएं मांगती होंगी. उन्हें क्या मालूम कि यंहा शहर के रास्ते में कदम-कदम पर नीबू-मिर्च के उतरन पड़े मिलेंगे. अंधी मान्यताओं का मारा खुशहाली का प्रतिक यह नीबू-मिर्च कब तक सड़कों पर फेंका जायेगा? बेशक तरक्की के लिए धंधों को बुरी नज़रों से बचाएं मगर पीले पड़े नीबुओं को हर बार सही ठिकाना तो मिले..
एम के मिश्रा, माँ आनंदमयी नगर, रातू, 835222 रांची%