कन्यादान ;
हिन्दू पद्धति से विवाह की रस्मों के दौरान फेरों से पूर्व एक रस्म होती है,जिसे कन्यादान का नाम दिया जाता है .जिसका भावार्थ है, माता-पिता अपनी बेटी को उसके ससुराल वालों को दान कर देता है.क्या बेटी कोई वस्तु है या पालतू जानवर है जिसे बाप ,दान कर देता है ?क्या एक लड़की का वजूद एक हाड़ मांस के पुतले के रूप में ही है ? उसकी अपनी कोई भावना ,कोई इच्छा ,कोई चाहत नहीं होती ? वह स्वतंत्र रूप से अपने भविष्य के फैसले लेने की कोई अधिकारी नहीं है? इसी कारण उसे एक खूंटे से हटा कर किसी और खूंटे से बांधने की रस्म निभाई जाती है ,उसका मालिक बदल दिया जाता है .यही कारण है एक लड़की विवाहित होने तक पिता की धरोहर होती है, उसके नियंत्रण में रहती है, विवाह के पश्चात् पति और ससुराल वालों के नियंत्रण में आ जाती है, अंत में पुत्र के अधिकार क्षेत्र में आना पड़ता है . कन्यादान अप्रत्यक्ष रूप से शोषण का संकेत है,महिला समाज का अपमान है जो आज भी निर्बाध रूप से चल रहा है .सारे महिला संगठन भी चुप पड़े हैं क्यों?
भाग्य के भरोसे जीना ;
धार्मिक व्यक्ति अक्सर भाग्यवादी बन जाते हैं,क्योंकि उनकी मान्यता है कोई अदृश्य शक्ति पूरे विश्व को संचालित कर रही है,उसकी बिना इच्छा के दुनिया में पत्ता भी नहीं हिल सकता .मानव जीवन में सुख दुःख एवं उपलब्धियां सब कुछ पहले से निर्धारित है .इन्सान सिर्फ एक कठपुतली है.जो भाग्य में लिखा है उतना ही उसे मिलेगा, उसे अधिक कुछ नहीं .दूसरे अर्थों में जब सब कुछ निर्धारित है तो मनुष्य को कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है.परन्तु सोचने की आवश्यकता यह है , क्या भाग्य के भरोसे रहकर खेतों में अनाज उगाया जा सकता है? क्या फेक्टरियों में बिना श्रम के उत्पादन संभव है? क्या देश पर हमला करने वाले दुश्मन को बिना संघर्ष के भाग्य का भरोसे हाथ पर हाथ रख कर भगाना संभव है? क्या वर्तमान विकास का स्वरूप भाग्य के भरोसे ही संभव हो पाया है?
बिना कुछ किये हुए कुछ भी संभव नहीं है तो भाग्य पर निर्भर रह कर निष्क्रिय हो जाना कितना उचित है?अतः प्रत्येक जागरूक नागरिक को सिर्फ भविष्य फल की जानकारी पर निर्भर न रह कर अपने परिश्रम,अपने कार्यों को प्रमुखता देनी चाहिए और अपना हाथ जगन्नाथ की निति पर अमल करना चाहिए.
भूत प्रेत में विश्वास ;
जहाँ सुख होता वहां दुःख भी होता है , जहाँ दिन होता है तो रात भी होती है अर्थात जहाँ सकारात्मकता होती है वहां नकारात्मकता भी होती है. जब मानव ने अदृश्य शक्ति की कल्पना , पालनहार, जन्मदाता, दुःख हरता के रूप में ईश्वर की कल्पना की, तो एक संघारक ,पीड़ादायक ,डरावनी शक्ति के रूप में भूत प्रेत की कल्पना भी मन में विकसित हुई. इस प्रकार से दो अलग अलग शक्तियों की कल्पना हुई ,जिसमे एक शक्ति लाभकारी थी ,प्यार करने वाली थी (ईश्वर ) तो दूसरी दुष्टात्मा सभी मानव के विरुद्ध कार्य करने वाली शक्ति यानि भूत प्रेत .मानव सभ्यता के प्रारंभिक काल में ऐसी कल्पना का विकास कोई अस्वाभाविक भी नहीं था .इस प्रकार से मानव के सभी कष्टों का कारण भूत प्रेत को माना गया. परम्परागत मान्यता के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अकाल मृत्यु या आकस्मिक दुर्घटना में मर जाता है तो आयु से पूर्व मौत हो जाने के कारण उसे मुक्ति नहीं मिलती और उसकी भटकती आत्मा जब तब परिजनों को परेशान करती रहती है. जब तक उसके उद्देश्य अथवा उसकी अधूरी रह गयी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो जाती, उसकी मुक्ति नहीं होती. यदि परिवार में कोई मानसिक रोगी होता है, अचानक गंभीर रूप से बीमार हो जाता है, परिवार में कोई दुर्घटना का शिकार हो जाता है, तो उसे भूत या प्रेत का शिकार मान लिया जाता है और उसका इलाज किसी तांत्रिक से कराया जाता है.जो अत्यंत अतार्किक, क्रूर, एवं कष्टदायक होता है.जो आधुनिक चिकित्सा विज्ञानं पर एक तमाचे के समान है.क्या वास्तव में तांत्रिक की झाड़ फूंक मरीज को ठीक करने में सफल है? तांत्रिक इलाज नितांत धोखेबाजी और आडम्बर बाजी का प्रतीक है .जहाँ तक मृत व्यक्ति की आत्मा का प्रश्न है,जिस व्यक्ति के शरीर का अंत ही हो गया उसमे सोचने समझने की शक्ति तथा इच्छाओं की पूर्ती की अभिलाषा काल्पनिक एवं तर्कहीन मानसिकता है. यह भी कहा जा सकता है कुछ धूर्त किस्म के लोग अपनी दुकानदारी चलाने के लिए तंत्र मन्त्र के जाल में भोली भली जनता को फुसलाते है और अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं. ये लोग कुतर्क करके जनता को भयभीत करते है.अशिक्षित जनता इनके भ्रमजाल में फंस जाती है. प्रत्येक जागरूक नागरिक को तंत्र -मन्त्र ,भूत -प्रेत के अन्धविश्वास में पड़ने से बचना चाहिए , और अपने परिवार तथा परिजनों को रूढ़ीवाद से मुक्ति दिलानी चाहिए.किसी भी शारीरिक रोग, अथवा मानसिक रोग का इलाज चिकित्सा विज्ञानं के पास उपलब्ध है, अतः कोई कारण नहीं बनता धोखे बाजों (तांत्रिकों) के चंगुल में फंस कर अपना आर्थिक नुकसान करके अपने प्रियजन का जीवन भी कष्टकारी बनाया जाय. तांत्रिक नामक प्रजाति का जन्म जब हुआ होगा जब इन्सान के पास अनेक रोगों के इलाज उपलब्ध नहीं थे.और मरता क्या न करता परिवार में दुखी प्रियजन के कष्टों के निवरण की आस इन्ही तांत्रिकों में ढूंढता होगा.भले उससे कोई स्वास्थ्य लाभ न होता हो एक आशा की किरण लेकर तन्रिकों की दुकानदारी चमकाते रहते थे. परन्तु आधुनिक समय में भी यदि कोई व्यक्ति इनके मिथ्या प्रचार में फंसता है तो वह निश्चित रूप से दया का पात्र है.शिक्षित व्यक्तियों को ऐसे भोले भले नादान लोगों को तांत्रिक जाल से निकालना उनका कर्तव्य है.
लेखक की पुस्तक “बागड़ी बाबा और इंसानियत का धर्म” से प्राप्त अंश