किसी कवि की लिखीं गई ये पंक्तियां — अजीब रिवाज है हमारे मुल्क का भी, नीयत आदमियो की खराब होती है और घूंघट औरतों से निकलवाते है ! समाज में महिलाओं का यथार्थ बयां करती है।
मुस्लिम समाज में तीन तलाक पर पुरुषवादी वर्चस्व हावी है। यह कैसी विसंगति है कि एक ओर हमारा समाज महिलाओं के साहस‚ शौर्य और उनके सम्मान के लिए महिला दिवस इत्यादि अवसरों पर तारीफों के पुल बांधने से नहीं थकता तो वहीं दूसरी ओर जब महिलाओं के हक की बात आती है तो वहीं समाज उनके प्रति विमुख खड़ा हो जाता है। कुछेक कट्टरपंथी और तथाकथित धर्मानुयायी धर्म की आड़ में महिलाओं के प्रति असहिष्णुता का जहर समाज में घोंलने से बाज नहीं आ रहे है। कुरान जैसा पवित्र ग्रंथ तीन तलाक जैसी कुरीति का खंडन करता है। खुद मुस्लिम गुरु मोहम्मद पैगंबर पुरुष और महिला के समान हक की बात करते है। तो फिर यह कौन लोग है जो आये दिन मीड़िया के चैनलों या समाचार-पत्रों के माध्यम से अर्नगर्ल बयानबाजी करके महिलाओं को नीचा दिखाने पर तुले हुए है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जिसमें एक भी महिला सदस्य नहीं है वो महिलाओं की राय जाने बग़ैर ही अपने हुक्म चलाता है। जब हमारे पड़ौसी देश पाकिस्तान‚ श्रीलंका‚ बांग्लादेश‚ अफगानिस्तान जैसे लगभग 22 देशों में तीन तलाक को समाज के लिए अभिशाप मानकर इस पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया है तो इस शुभ निर्णय में भारत जैसा देश पीछे क्यूं है ? तीन बार तलाक बोलने से या फिर मोबाईल के जरिये स्काइप, ईमेल, मैसेज और वाट्सऐप पर तीन बार तलाक‚ तलाक और तलाक का मैसेज छोड़ देने भर से शादी जैसा सात जन्मों का पवित्र बंधन चंद सैकण्डों में तीतर-बीतर होकर बिखर जाता है। जब तीन बार तलाक कह देने से शादी टूट जाती है और सारे रिश्ते-नाते खत्म हो जाते है तो तीन बार कबूल‚ कबूल और कबूल कहने से शादी क्यूं नहीं हो जाती है ? यह तीन तलाक के एकतरफा अधिकार का लाभ केवल पुरुष बिरादरी को ही क्यूं ? दीगर बात यह भी है जिन लोगों को तीन तलाक और चार बीबियां रखने से परहेज नहीं तो फिर फौजदारी शरियत से परहेज क्यों ? फौजदारी शरियत में मुसलमानों को गुनाह के बदले हाथ-पैर कटवाने, पत्थर से मार-मार कर हत्या और फांसी तक की सजा होती है। अधिकतर अपराधी आतंकवादी मुस्लमान ही होते हैं। इसलिए मुस्लमानों पर फौजदारी शरियत भी लागू की जानी चाहिए। एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के लिए यह शर्म की बात है कि वह तीन तलाक जैसी कुरीतियों के साथ इसलिए जी रहा है कि एक समुदाय नाराज हो जाएगा। पुरापंथी प्रथा एक समय में समाज में आदर्श मानी जाती हो पर समय के साथ तर्क और ज्ञान की कसौटी पर अविवेकी और अंसवैधानिक सिद्ध होती है तो उसे त्याग देना ही समाज हित में बेहतर है। जिस प्रकार सती प्रथा औरतों के साथ अन्याय थी उसी प्रकार तीन तलाक की कुप्रथा भी महिलाओं को जिंदा लाश बनाकर ता-उम्र असहनीय पीड़ा की ओर धकेलने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। परिवर्तन संसार का नियम है। वक्त के साथ कुप्रथाओं से समाज को मुक्त करना समाज के हर नागरिक का परम कर्तव्य है। अंत्वोगत्वा‚ तीन तलाक जैसा अतिसंवेदनशील और महिलाओं के हक से जुड़ा मुद्दा महिलाओं को तटस्थ रखकर नहीं बल्कि उनको साथ लेकर उनकी राय जानकर ही एक सहमति से निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है। अधिकांश मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक के घोर विरोधी पायीं गई है।
अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है. माननिय सुप्रीम कोर्ट ने उसके द्वारा एक नियत बेंच में 11 मई से 14 मई २०१७ तक नित्य सुनवाई करने का आदेश दिया है और दोनों पक्षों को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया गया है.अतः अब शीघ्र ही निर्णय आने की सम्भावना बन गयी है.