कलाकारों की फीस जनता के साथ अन्याय
समाचार पत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार बड़े बड़े एक्टर, टीवी. चेनल पर एक एपिसोड में अपना किरदार निभाने के लिए करोड़ों रूपए अपने पारिश्रमिक के रूप में वसूलते हैं. इसी प्रकार विज्ञापन के लिए भी लाखों में फीस वसूल करते है. जबकि एक उद्योगपति के लिए अरबों रूपए लगाकर, अनेकों जोखिम उठाने के पश्चात् भी पूरे वर्ष में एक करोड़ की कमाई कर पाना निश्चित नहीं होता. क्या इन एक्टरों का कार्य इतना कष्ट साध्य या दुर्लभ है जिसके लिए उन्हें इतनी बड़ी कीमत चुकाई जाती है.कार्पोरेट सेक्टर के पास जनता का पैसा होता है अतः उन्हें खर्च करने में कोई परेशानी नहीं होती. एक्टरों द्वारा जनता में अपनी पहचान बना लेने की इतनी बड़ी कीमत वसूलना जनता के साथ, देश के साथ अन्याय है. सरकार को चाहिए जो कलाकार एक करोड़ रूपए से अधिक वार्षिक आमदनी करते हैं उनसे पचास प्रतिशत या उससे भी अधिक आय कर
लगाया जाय.ताकि उनके पास बेपनाह दौलत एकत्र न हो सके.
यह कैसा सर्वशिक्षा अभियान?
गुलामी की जंजीरों से मुक्ति मिलने के पश्चात् हमारे देश की सत्ता पर काबिज होने वाली विभिन्न सरकारों ने देश की समस्त जनता को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया. समय समय पर अनेक कानूनों द्वारा साक्षरता मंत्रालय ने विभिन्न स्तर पर साक्षरता अभियान चलाये, शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये, मिड डे मील, छात्रवृति इत्यादि प्रलोभनों से अभियान को प्रभावी करने का प्रयास किया. फलस्वरूप शिक्षा का प्रचार प्रसार द्वारा साक्षरता दर बढ़ी. परन्तु सरकार के आज भी सर्वशिक्षा एवं शिक्षा की गुणवत्ता के लिए प्रयास अधूरे ही हैं. बढती जनसँख्या के अनुसार विद्यालयों, कालेजों का अभाव आज भी बना हुआ है.जिस कारण निजी स्कूल, कालेजों की बाढ़ आ गयी. सरकारी क्षेत्र के विद्यालयों कालेजों में शिक्षा की गुणवत्ता की अभाव के कारण निजी शिक्षण संस्थाओं द्वारा अभिभावकों का शोषण बढ़ता जाता है. निजी शिक्षण संस्थाओं द्वारा एक तरफ अभिभावकों का शोषण किया जाता साथ ही उनमे कार्यरत अध्यापकों को पर्याप्त वेतन न देकर उनका शोषण जगजाहिर है.दूसरी ओर सरकारी शिक्षण संस्थाओं के अध्यापकों के वेतन देश में प्रचलित मापदंडों से कही अधिक दिया जाता है फिर भी शिक्षा की गुणवत्ता और संस्थानों की व्यवस्था शोचनीय है.
उपरोक्त स्तिथि तो तब है जब चालीस प्रतिशत बच्चे आज भी पढने जाते ही नहीं. सिर्फ पंद्रह प्रतिशत बच्चे ही हाई स्कूल तक पहुँच पाते हैं और सात प्रतिशत किशोर ही स्नातक बन पाते हैं. उच्च शिक्षा पाने वाले युवकों का प्रतिशत तो और भी कम होगा
बच्चों के साथ व्यव्हार में संतुलन
बच्चे के विकास में अभिभावकों की मुख्य भूमिका होती है. अभिभावकों के असंगत दवाबों में पल बढ़ रहा बच्चा संकोची एवं दब्बू बन जाता है. तानाशाही व्यव्हार बच्चे को कुंठित करता है. इसी प्रकार गंभीर विषम परिस्थितियों में पलने बढ़ने वाले बच्चे क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं. दूसरी तरफ अधिक लाड़ प्यार में पलने वाला बच्चा जिद्दी,उद्दंडी,एवं दिशा हीन हो जाता है. अनुशासनात्मक सख्ती, बच्चे में आत्मसम्मान का अभाव उत्पन्न करती है.और आत्म ग्लानि तक ले जा सकती है.अतः अभिभावकों के लिए आवश्यक है की बच्चों के पालन पोषण में उसे निर्मल,स्वतन्त्र,प्यार भरा एवं अनुशासन का संतुलन का वातावरण उपलब्ध कराएँ. ताकि आपका बच्चा योग्य एवं सम्मानीय नागरिक बन सके. (कम शब्दों में गंभीर विचार)
राजनैतिक पदों के लिए शैक्षिक योग्यता क्यों नहीं?
सरकारी पदों पर चपरासी से लेकर सचिव की भर्ती पर न्यूनतम अहर्ता नियत होती है.उस योग्यता के आधार पर ही नियुक्ति की जाती है. परन्तु विधायक, संसद यहाँ तक मंत्री और प्रधान मंत्री तक के लिये नामांकन फॉर्म भरते समय न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता नहीं होती क्यों? जबकि किसी भी राजनैतिक पद पर रह कर जनता की सेवा करना कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है.एक मंत्री पूरे मंत्रालय को चलाता है जिसमे अनेको I .A .S .अधिकारी उसके अधीन कार्य करते हैं. उन्हें नियंत्रित करने के लिय योग्यता क्यों आवश्यक नहीं? शायद इसी का परिणाम है की हमारे देश में लोकतंत्र के नाम पर लूटतंत्र विकसित हो गया है. लालची राजनेता जनता की परवाह किये बिना अफसरों के हाथों की कठपुतली बने रहते हैं.योग्य मंत्री मंत्रालय को जनता की उम्मीदों के अनुसार चला पाने में समर्थ हो सकता है और सरकारी तंत्र की कमजोरियों को पकड कर उन पर चोट कर सकता है.
लेखक सत्य शील अग्रवाल द्वारा रचित पुस्तक “जीवन संध्या” ऑनलाइन उपलब्ध है.
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