धर्म मानव के लिए है. या मानव धर्म के लिए.
जिस प्रकार विश्व में धर्म के नाम पर युद्ध की स्तिथि बन गयी है, ऐसा लगता है, प्रत्येक धर्म पूरी मानवता को अपना गुलाम बना लेना चाहता है. शायद धर्माधिकारी धर्म के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए हैं. धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानवता की सेवा करना है, मानव को सभ्यता के दायरे में रखकर समाज में मिलजुलकर, शांति पूर्वक, जीवन व्यतीत करने का मौका उपलब्ध कराना है.
किसी भी व्यक्ति को जन्म से पूर्व धर्म चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती. उससे नहीं पूछा जाता की वह कौन से देश और कौन से धर्म के समाज में जन्म लेना चाहता है. परन्तु प्रत्येक धर्म अपने जातकों को उसके नियम और आस्थाओं को मानने के लिए बाध्य करता है पर क्यों ? उसे तर्क संगत तरीके से अपने धर्म की विशेषताओं से प्रभावित क्यों नहीं किया जाता ? उसे अपनी इच्छा अनुसार धर्म चुनने क्यों नहीं दिया जाता ? प्रत्येक धर्म का अनुयायी अपने धर्म को श्रेष्ठ एवं अन्य धर्म को मिथ्या साबित करता है. जबकि सबका उद्देश्य उस अज्ञात शक्ति तक पहुंचना है, जिसे विश्व का निर्माता माना गया है.
आस्था को सिर्फ आस्था तक ही सिमित क्यों नहीं किया जा सकता. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था या विश्वास को मानने का अधिकार क्यों नहीं है?उसे अपने तर्क के आधार पर किसी धर्म को मानने की छूट क्यों नहीं दी जाती ?
क्या मुझे वेद, पुराण,गीता,रामायण जैसे धर्म ग्रंथों की बातों पर इसलिए विश्वास करना चाहिये क्योंकि मैं हिन्दू, परिवार में पैदा हुआ हूँ?
क्या मुझे कुरान एवं उसकी आयतों में इसलिए आस्था रखनी चाहिए क्योंकि मेरे जन्म दाता मुस्लिम हैं? और मुझे सच्चा मुस्लमान साबित होना होगा?
मुझे बाइबिल के दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिये क्योंकि मैं ईसाई हूँ या ईसाई परिवार में जन्म लिया है ,और मेरे माता पिता ईसाई धर्म के अनुयायी हैं?
अधिकतर धर्माधिकारी तर्क की धारणा सामने आते ही आग बबूला हो जाते हैं, वे सहन नहीं कर पाते. मानवता की सच्ची सेवा ,धर्म को लागू करने में नहीं ,इंसानियत को लागू करने में होनी चाहिए. वही विश्व कल्याण का रास्ता प्रशस्त कर सकता है.(पढ़ें—बाबा बागड़ी और इंसानियत का धर्म )
गाय हमारी माता है तो बिजार या बैल?
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार गाय को माता के समान पूज्यनीय माना गया है. आयुर्वेदिक चिकित्सा में गाय का दूध, गाय का मूत्र, गाय का गोबर सभी वस्तुएं उपयोगी बताई गयी हैं. अर्थात मानव स्वास्थ्य के लिया लाभकारी हैं. परन्तु इसी गाय की नर संतान यानि बिजार या बैल को पूज्यनीय तो क्या सामान्य व्यव्हार भी नहीं दिया जाता .क्या उसके अवयव उपयोगी नहीं होते ,इसीलिये उसे नपुंसक बना कर खेतों में जोता जाता है, उसको बधिया बना कर उसे अपनी जिन्दगी सामान्य जीने का अधिकार भी नहीं दिया जाता. इससे तो यही सिद्ध होता है गाय के दूध की उपयोगिता के कारण ही उसे माता मान लिया गया और पूजा गया .इन्सान अपने स्वार्थ के लिए ही किसी को पूजनीय मान लेता है.
यह कैसा देवी रूप?
हमारे शास्त्रों में स्त्री को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है. प्रत्येक पूजा पाठ में स्त्री को पुरुष की अर्धांगिनी मानते हुए उसका उपस्थित होना अनिवार्य माना गया है. प्रत्येक सामूहिक शब्द में नारी को प्राथमिकता देते हुए उच्चारण किया जाता है, जैसे देवी देवता, माता पिता, सीता राम,राधा कृष्ण अर्थात नारी को उच्च सम्मान दिया गया है. परन्तु फिर भी हजारों वर्षों से नारी को दोयम दर्जे का व्यव्हार दिया गया है. उसे भोग्या समझ कर उसका शोषण, उसका अपमान किया जाता रहा है.परन्तु क्यों? धार्मिक होने का दावा करने वाले अपने व्यव्हार में इतने अधार्मिक क्यों? क्या इस प्रकार का व्यव्हार धर्म का अपमान नहीं? शास्त्रों का अपमान नहीं? अपने इष्ट देव का अपमान नहीं?. नारी जागरण के लिए अनेक आन्दोलन चलने के बावजूद, अनेक सरकारी कानून बनने के बावजूद महिला के साथ हिंसा,दुर्व्यवहार,दुराचार अपमान आज भी जारी है.
राम नाम सत्य है
प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए राम के नाम को सत्य मानना उसके विश्वास का प्रतीक है. परन्तु साधारण बोल चाल में यदि कोई कह दे “राम नाम सत्य है”तो शायद कोई भी कुपित हो जाय , कहने वाले को कातर निगाह से देखेगा. क्योंकि “राम नाम सत्य है” का उच्चारण सिर्फ मृतक को श्मशान घाट तक ले जाने के लिए वैध माना गया है . अर्थात राम का नाम सिर्फ जब ही सत्य है जब कोई मर जाय अन्यथा राम का नाम सत्य नहीं होता, राम का नाम सत्य कहना, अशुभ होता है., कितनी विरोधाभासी मान्यता है हमारे समाज की
देश का मालिक कौन ?
कभी सरकारी वेतन कर्मियों के वेतन तर्क संगत नहीं हुआ करते थे. अतः सरकारी कर्मियों को भ्रष्टाचार अपनाये बिना परिवार चलाना मुश्किल था अथवा कम वेतन दे कर सरकार ने भ्रष्ट तरीके अपनाने को प्रेरित किया. धीरे धीरे पूरा सिस्टम भ्रष्टाचार में डूबता चला गया और नेताओं की जेबें भरने लगीं .प्रत्येक सरकारी कर्मी की नियति बन गयी की बिना कुछ लिए उसे फाइल को हिलाना भी गवारा न रहा. परन्तु पिछले बीस वर्षों में सरकारी वेतन आयोग की सिफारिशों के चलते वर्तमान में सरकारी कर्मियों को वेतनमान मार्केट में प्रचलित वेतनमानों से कहीं अधिक कर दिए गए हैं. परन्तु तर्क संगत वेतनमान से भी अधिक वेतन मिलने के पश्चात् भी भ्रष्टाचार पर किसी प्रकार से अंकुश नहीं लगा. बल्कि घूस की दरें भी वेतनमान के अनुसार बढा दी गयीं. अब पांच सौ प्रतिदिन के हिसाब से वेतन पाने वाला कर्मचारी पचास रूपए रिश्वत कैसे ले सकता है,उसे भी दो सौ या ढाई सौ से कम रिश्वत कैसे रास आ सकती है. इसी प्रकार अधिकारियों ने अपनी घूस की दरें बढा दीं अर्थात वेतनमान तो जनता की गाढ़ी कमाई से गया ही, रिश्वत दरें बढ़ने से अपरोक्ष रूप से भार पड़ा सो अलग.जनता तो शोषित किये जाने के लिए ही है. शायद हमारे देश में नेताओं,पूंजीपतियों,सरकारी कर्मियों को ही जीने का अधिकार है. बाकी जनता तो लुटने के लिए है.
हमारी चुनाव प्रणाली दोष पूर्ण होने के कारण ,चुनावों में विजय मिलती है, या तो धनवानों को या फिर बाहुबलियों को जो दबंगई के बल पर चुनाव जीत जाते हैं. धन वाले उम्मीदवार धन के बल पर समाज के कमजोर वर्ग को आसानी से भ्रमित कर वोट प्राप्त कर लेते हैं.और चुनाव जीत जाते हैं यही कारण है कोई भी नेता आरक्षण व्यवस्था को हटाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता.परिणाम स्वरूप मेधावी नागरिक जो उच्च जाति के होते हैं, को देश के विकास में योगदान का अवसर नहीं मिल पाता. अतः वे अधिकतर विदेशों को चले जाते हैं और देश के विकास अवरुद्ध हो जाता है.जनता को चुनाव का अधिकार होते हुए भी वह उसका सदुपयोग नहीं कर पाती .
जनता तो देश की मालिक है उसे सिर्फ प्रितिनिधियों को चुनने का अधिकार है,वोट देने का अधिकार है बस यहीं तक जनता देश की मालिक है. जनता अपनी मेहनत से विकास करेगी,पैदावार बढ़ाएगी,मिलों में उत्पादन बढ़ाएगी, तो लाभ सरकार में बैठे नेता या फिर सरकारी कर्मी चाटते रहेंगे,फिर जनता महंगाई से पिसती रहेगी . और अपने नसीब को कोसती रहेगी.वाह रे लोकतंत्र,वाह रे जनतंत्र, या बेईमानी तेरा सहारा…….देश का विकास होगा तो विकास होगा सरकारी कर्मियों का विकास होगा नेताओं का या फिर उद्योगपतियों का ,पूंजीपतियों का ———-अपराधियों का ????