बाबा साहेब आंबेडकर जयंती के अवसर पर
स्वर्ग तुल्य साक्षात् इस धरती पर एक दौर ऐसा भी था जब मानव-मानव में फर्क कर लाल रक्त को घृणित करने का प्रयास हो रहा था। अछूत के आतंक से निम्न श्रेणी के दलित, वंचित, शोषित और पीड़ित तबके के लोगों के साथ अमानवीय व अभद्र व्यवहार कर उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था। यह कहे कि अछूतों को सिर उठाकर चलने की इजाजत तो दूर की बात उन्हें किसी चीज को स्पर्श करने की भी अनुमति नहीं थी। उनकी परछाई पड़ने मात्र से उच्च श्रेणी के लोग पुनः स्नान कर लिया करते थे। ऐसा व्यवहार और भेदभाव तो कोई पशुओं के साथ भी नहीं करता होगा। लेकिन दलित समुदाय के अंसख्यक लोग इस तरह का नारकीय और घुटन भरा सजादायक जीवन जीने को मजबूर थे। इस संक्रमण और असमानता के नाजुक दौर में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का अवतरण किसी क्रांति और अभ्युदय से कमत्तर नहीं आंका जा सकता है। अम्बेडकर के पिता सेना में थे। उस समय सैनिको के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा की विशेष व्यवस्था हुआ करती थी। इस कारण अम्बेडकर की स्कूली पढ़ाई सामान्य तरीके से संभव हो पायी। अन्यथा तो दलित वर्ग के बच्चों को स्कूल में पानी के नल को हाथ लगाना भी वर्जित माना जाता था। ऐसे हालातों में उन बच्चों को शिक्षा तो क्या खाक मिली होगी ? अम्बेडकर के हृदय में समाज की इस विचित्र और अन्यायपूर्ण व्यवस्था को लेकर बाल्यकाल से ही आक्रोश था। शनैः-शनैः उम्र और ज्ञान के साथ उनके आक्रोश की अग्नि ओर भी तेज होने लगी। इंसान का आक्रोश सृजन और विनाश दोनों को जन्म देता है। लेकिन अम्बेडकर का आक्रोश जायज और समाजहित में था। इसलिए उनका आक्रोश अवश्य ही महान व्यक्तित्व का निर्माण करने वाला था। समय की करवटों के साथ अम्बेडकर ने देश और विदेश में पढाई पूर्ण कर कानून की डिग्री हासिल कर ली। अध्ययनकाल के समय ही किसी मित्र ने अम्बेडकर को महात्मा बुद्ध की जीवनी की पुस्तक भेंट की थी। बुद्ध के जीवन और बौद्ध धर्म को जानकर अम्बेडकर बेहद ही प्रभावित हुए। परिणामस्वरुप उन्होंने अपने जीवनकाल में बौद्ध धर्म को सहर्ष स्वीकार भी किया था। अंततः असामनता का अंत करने के लिए स्वतंत्रता के आंदोलन में कूद पड़े। शहीदों और क्रांतिकारियों ने जेल की दीवारों पर नाखूनों से वंदेमातरम और जय हिन्द के नारों को लिखकर देश की आजादी की इबारत की भूमिका तैयार की। अनगिनत प्रयत्नों के बाद देश में आजादी का दिनकर खिला, हर चेहरे पर अपना तेज और चमक लौट आयी और हर घर में खुशियों ने दस्तक दी। लेकिन आजादी के बाद देश के संविधान को निर्मित्त कर गणराज्य की स्थापना करना इतना सरल और आसान काम नहीं था। ऐसे में कानून के ज्ञाता अम्बेडकर को देश के संविधान को तैयार करने का काम सौंपा गया। दरअसल अम्बेडकर को तो इस काम की दूर-दूर तक कोई आशा ही नहीं थी। क्योंकि आजादी के बाद गणराज्य की मांग करने वाले अधिकांश नेता उच्च वर्ग के थे। डॉ. अम्बेडकर और राजेन्द्र प्रसाद के संयुक्त तत्वावधान में दो वर्ष, ग्यारह माह और अठारह दिनों की समयावधि के बाद देश का संविधान बनकर तैयार हो गया। देश के संविधान में अल्पसंख्यक जनों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान व दलित और पिछड़े तबके के लोगों के लिए आरक्षण और उदारवादी तरीका अपनाया गया। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्वता का ये सिद्धांत फ्रांस के संविधान से आयातित किया गया। खुद अम्बेडकर इस सिद्धांत के पुरोधा और प्रतिपालक थे। संविधान सभा में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने अम्बेडकर की इस मुश्किल काम को कम समय में इतनी सूझबूझ और बुद्धिमता से संपंन करने के लिए भूरी-भूरी प्रशंसा की। साथ ही अम्बेडकर की परिकल्पना के आधार पर रिजर्व बैंक की स्थापना भी की गयी। अम्बेडकर आजादी के पक्षधर जरुर थे लेकिन वे देश के बंटवारे के खिलाफ थे। अपनी पाकिस्तान का विचार नामक पुस्तक में अम्बेडकर ने बंटवारे की कडी भत्र्सना और विरोध किया है। धर्म के प्रति अम्बेडकर आस्थिक प्रवृत्ति के थे। जहां माक्र्सवाद विचारधारा धर्म को अफीम मानकर इसका कट्टर विरोध कर रही थी, वहीं इससे अप्रभावित अम्बेडकर की नजरों में धर्म को लेकर अलग ही सोच थी। उनके विचारों में धर्म वह जो सर्वजनों को समान अधिकार प्रदान करें। कुरीतियों को मिटाकर एक साफ-सुथरे समाज का निर्माण करें। यह धर्म संविधान ही था। जिसके अम्बेडकर स्वयं कर्ता-धर्ता थे। आजीवन गरीबों और दलितों के हक के लिए लड़ने वाले, फटे कोट और मैली टाई में भी उच्च के सपनों को बुनने वाले सबके आत्मीय और अजीज अम्बेडकर लंबे समय तक बीमारी से जुझते हुए अलविदा कह गये। अम्बेडकर के जाने के लगभग छह दशक बाद भी हम अम्बेडकर के आदर्शो का भारत बनाने में पूर्णतय सफल नहीे हो पाये है। संवैधानिक अधिकारों के बलबूते पर आज दलित और पिछड़ो को समाज की मुख्यधारा में आने का अवसर तो जरूर मिला है लेकिन उनके प्रति समाज के लोगों की सदियों से ग्रस्त मानसिकता अब भी नहीं बदल पायी है। हमारे देश में आज भी दलित समुदाय को घृणा की निगाहों से देखा जाता है। आये दिन दलितों के बच्चों को जिंदा जलाने की खबरें इसका सबूत है। हमारे समक्ष आज भी अम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने की चुनौती है। इस सपने को हम सबको मिलकर पूरा करना है। यहीं इस पुण्य आत्मा के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होंगी। (लेखक जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर में अध्ययनरत है।)