यहाँ मैं पंडितों द्वारा किये जाने वाले कर्मकांडों का विश्लेषण करने नहीं जा रहा हूँ.इस लेख का उद्देश्य हमारे कुछ सामाजिक क्रिया कलापों का विश्लेषण करना है
- जब भी किसी परिवार में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है तो परंपरा है, तेरह दिन तक परिवार को अशुद्ध माना जाता है. इसी कारण घर में भोजन भी नहीं बनाया जाता या बनता भी है तो शुद्ध सात्विक भोजन वह भी सिर्फ एक समय(अक्सर सवेरे)बनाया जाता है. शेष समय के लिए भोजन की व्यवस्था अन्यत्र से होती है, जैसे अडोस पड़ोस से अथवा निकट सम्बन्धी द्वारा. यदि इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं हो पाती है तो भोजन बाजार से मंगा लिया जाता है. अर्थात परिवार तेरह दिनों (जब तक तेरहवी की रस्में पूर्ण न हो जाएँ) तक भोजन के लिए पराधीन हो जाता है,आखिर क्यों?
- कोई आगंतुक मृतक परिवार को विजिट करता है तो उसे कहीं और जाने की इजाजत नहीं होती विशेष तौर पर किसी मित्र या सम्बन्धी के यहाँ नहीं जा सकते. सिर्फ अपने घर जाना होता है और स्नान आदि करने के पश्चात् ही कही भी जाने की इजाजत होती है. इस प्रथा के पीछे क्या कारण हो सकता है,सोचने का विषय है?
बारह दिन के शोक के पश्चात् तेरहवी को घर की शुद्धिकरण के लिए पंडितों के द्वारा हवन पूजन किया जाता है और एक नियत संख्या में पंडितों को भोजन कराकर ही घर पवित्र होता है.तत्पश्चात नियमित रूप से भोजन बनाना,स्वयं खाना और सभी मित्रों, सम्बन्धियों को भोजन कराने की आजादी होती है. अर्थात घर परिवार पूर्व की भांति सभी कार्यों को अंजाम दे सकता है.अब प्रश्न यह है की आखिर शुद्धिकरण के लिए तेरह दिन का इंतजार क्यों?
वैज्ञानिक कारण;—
जब भी कोई व्यक्ति म्रत्यु को प्राप्त होता है तो उसका शरीर मात्र पंद्रह मिनट बाद ही विघटित होने लगता है अर्थात उसके शरीर में इन्फेक्शन (विषाणु उत्पन्न होने लगते हैं) प्रारम्भ हो जाता है. अतः किसी भी जीवित व्यक्ति के लिए मृतक को छूना उसे बीमार कर सकता है,और यह कभी भी संभव नहीं होता की मृतक का अंतिम संस्कार मात्र पंद्रह मिनट में हो जाय. मृतक शरीर के अंतिम संस्कार के लिए कम से कम आठ घंटे लगते ही हैं कुछ विशेष परिस्थितियों में उसे एक दिन से भी अधिक रखना पड़ सकता है.इसीलिए उसे बर्फ की सिल्ली पर रखना पड़ता है या फिर शहर में उपलब्ध विशेष फ्रीजर में रखना होता है, ताकि मृतक के शरीर के विघटन की गति मंद हो जाय. वैसे भी यदि मृतक के शरीर में बदबू आने लगे तो अंतिम संस्कार की क्रियाएं करने वालों के लिए असहज होता है. अतः मृतक शरीर को विघटन से बचाना आवश्यक है.परन्तु जहाँ मृतक शरीर रखा होता है वैज्ञानिक दृष्टि से वह स्थान या ईमारत विषाणु ग्रस्त हो जाता है,अतः उसे कीटाणु रहित करना आवश्यक होता ताकि परिवार के सदस्य किसी इन्फेक्शन के शिकार न हो सकें. यद्यपि इन्फेक्शन को कम करने के लिए मृतक के पास धूपबत्ती अगर बत्ती इत्यादि जलाई जताई है, उससे भी इन्फेक्शन कम करने का प्रयास किया जाता है.परन्तु पूरी ईमारत का शुद्धिकरण भी आवश्यक हो जाता है. हवन इत्यादि के द्वारा शुद्धिकरण का तात्पर्य भी यही है. अतः इस समय निभाई जाने वाली परंपरा का वैज्ञानिक कारण है, जिन्हें एक रस्म या रिवाज का रूप दिया गया है.
क्या परिवर्तन किये जायें;
मृतक के अंतिम संस्कार के पश्चात् घर की साफ़ सफाई का नियम है, वह अच्छे से किया जाय यदि कीटाणु नाशकों अर्थात फिनायल इत्यादि से सफाई की जाय तो अधिक स्वास्थ्यप्रद होगा. यदि मृतक के अंतिम संस्कार करके घर लौटने वाले परिजन उसी समय हवन की प्रक्रिया को भी कर दें, तो स्वास्थ्य की द्रष्टि से अधिक लाभप्रद हो सकती है. तत्पश्चात जितने दिन भी शोक मनाना संभव हो, मनाया जाय. इस प्रकार पहले दिन से ही परिवार की भोजन व्यवस्था घर में ही हो सकती है. किसी अन्य व्यक्ति पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं रहेगी और ईमारत का शीघ्र शुद्धिकरण स्वास्थ्य की द्रष्टि से भी बेहतर होगा. जहाँ तक मृत्यु भोज की व्यवस्था का है वह पंडितों द्वारा सुझाये गए नियत दिन को किया जा सकता है, उस दिन एक बार फिर से हवन हो जाय तो और भी उत्तम रहेगा जिससे वातावरण और भी अधिक स्वास्थ्यकर हो जायेगा.
मृतक के परिवार से लौटने वाले यदि मृतक की अंतिम क्रिया में शामिल हुए हैं तो अच्छे से स्नान आदि करके कहीं भी जायं वैज्ञानिक आधार पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, अर्थात वह कहीं भी जाने को स्वतन्त्र है. यदि किसी ने मृतक की अंतिम क्रिया में भाग नहीं लिया है(सिर्फ उपस्थिति ही दर्ज करायी है) तो उसके लिए साफ़ सफाई अर्थात स्नानादि कोई भी पाबन्दी लकीर के फ़कीर वाली कहावत को ही साबित होती है.अप्रासगिक मान्यताओं को व्यवहारिक बनाकर ही भाग दौड़ भरी जिंदगी को सहज बनाया जा सकता है.
अतः उपरोक्त परम्पराओं का स्वास्थ्य की द्रष्टि से ठोस वैज्ञानिक कारण है, परन्तु हम कारणों को बिना सोचे समझे इन प्रथाओं को निभाते आ रहे हैं, यही वजह है इन परम्पराओं में अनेक अनावश्यक गतिविधियाँ भी जुडती चली गयीं. जिसके कारण हमें अनेक परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है.विशेष तौर पर आधुनिक भाग दौड़ वाली जिंदगी में इन परम्पराओं को निभा पाना असंभव होता जा रहा है. क्यों न इस परंपरा के पीछे के वैज्ञानिक कारण को समझते हुए वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यक संशोधन कर लिया जाय? इस प्रकार इन रस्मों को व्यावहारिक बनाकर मानव स्वास्थ्य का ध्यान भी रखा जा सकता है और वर्तमान समय के अनुरूप भी व्यावहारिक बनाया जा सकता है.