{लेखक—मो तौहिद आलम}
महिला विश्व कप के फाइनल में जब भारत-आस्ट्रेलिया की टीम भिड़ रही थी उस समय क्रीच पर एक भारतीय चट्टान अड़ा था। हरमनप्रीत कौर नाम के उस चट्टान के आगे छह बार के चैंपियन आस्ट्रेलिया की एक भी नहीं चली और आखिर में उसने हथियार डाल दिए। हरमनप्रीत ने उस दिन ऐसे रिकॉर्ड बनाए जो अब तक पुरुष क्रिकेट विश्व कप में भी कोई भारतीय बल्लेबाज नहीं बना पाया। जब हरमनप्रीत खेल रही थी उस समय मैं ऑफिस में काम में व्यस्त था, लेकिन जैसे ही उसने सैकड़ा जड़ा मैं काम छोड़कर टीवी के पास चिपक गया। जिस अंदाज में वह खेल रही थी कहीं से नहीं लग रहा था कि यह महिला विश्व कप है। जैसे ही कौर 150 के आंकड़े पर पहुंची हमने पिछले सर्वश्रेष्ठ स्कोर के रिकॉर्ड तलाशने शुरू कर दिए। हर गेंद पर वह एक कीर्तिमान बना रही थी। लेकिन उस समय ऑफिस के कुछ लोगों की प्रतिक्रिया सुनकर ऐसा लगा कि हम अब भी महिलाओं को उपेक्षित और कमजोर ही समझ रहे हैं। कुछ कह रहे थे कि महिला टीम के लिए ये कोई बहुत बड़ा स्कोर नहीं है क्योंकि इनकी गेंदबाजी उस स्तर की नहीं होती, तो कुछ कह रहे थे उनका ग्राउंड भी छोटा होता है पुरुष खिलाड़ियों की अपेक्षा। यह सब सुनकर बड़ा अजीब लगा। इसी विश्व कप में भारतीय टीम की कप्तान मिताली राज ने ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया जो अब तक कोई महिला टीम की खिलाड़ी नहीं कर पाई। मिताली महिला क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन बनाने वाली बल्लेबाज बन गई। यहीं नहीं भारत की ही झुलन गोस्वामी भी विकेट लेने के मामले में वर्ल्ड रिकॉर्ड बना चुकी है। जब इस तरह के रिकॉर्ड कोई पुरुष खिलाड़ी बनाता है तो उस पर खुब पैसों की बारिश होती है। उसे भगवान तक का दर्जा दे दिया जाता है, लेकिन लड़कियां तो लड़कियां ही होती है। पूरे टूर्नामेंट के दौरान शायद आप लोगों ने भी गौर किया होगा स्टेडियम में दूर-दूर तक दर्शक नहीं दिखाई देते थे। इक्का-दुक्का लोग ही टीवी पे मैच देख रहे होते है। कई को तो पता भी नहीं होगा कि विश्व कप चल रहा है। मैच का प्रसारण करने वाले चैनल के पास कोई विज्ञापन तक नहीं था। ये सब मैं सिर्फ इसलिए कह रहा हूं ताकि 21वीं सदी में हम पुरुष और महिला के खाई को पाट सकें। खेल में हमने जो मानक स्थापित कर दिए हैं, हम उस कंफर्ट जोन से बाहर आए। जब भारत का किसी देश से मैच होता है तो हम काम-धाम छोड़कर टीवी से चिपक जाते हैं, लेकिन महिला टीम के साथ ऐसा हम क्यों नहीं कर पाते।
चैंपियन ट्रॉफी के दौरान भारत का पाकिस्तान के हाथों हार की काफी किरकिरी हुई, लेकिन उसी दिन जब भारत ने अपने राष्ट्रीय खेल हॉकी में उसी चिर-प्रतिद्वंदी पाकिस्तान को 7-1 से करारी शिकस्त दी तो हम उन्हें बधाई तक नहीं दे पाए। उसी दिन भारत ने बैडमिंटन में इंडोनेशिया ओपेन खिताब जीता था। भारत-पाकिस्तान क्रिकेट के खुमारी में डूबे सोशल मीडिया यूजर्स इन सब चीजों से अंजान बने रहें। यहां तक कि जब मैंने हॉकी में भारत की जीत को फेसबूक पर अपडेट किया तो मुझे ट्रॉल तक होना पड़ा। एक यूजर्स ने तो यहां तक कह डाला कि अचानक हॉकी की याद कैसे आ गई। हार का तुम्हें अफसोस नहीं, क्योंकि पाकिस्तान जीत गया।
खैर वापस मुद्दे पर आते हैं 23 जुलाई 2017 को जब भारत-इंग्लैंड का विश्व कप फाइनल में भिडंत था तो कहीं दर्शकों में उस तरह की तैयारी या उत्साह देखने को नहीं मिला, जो अमूमन आइसीसी पुरुष विश्व कप या भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान देखने को मिलते हैं। हरमनप्रीत को कई लोग जानते तक नहीं हैं। कुल मिलाकर देखे तो हम महिलाओं के उपलब्धियों पर खुश होने के बजाए उसमें कुछ नुक्स निकालने में लग जाते हैं।
पिछले कुछ सालों में जब लगातार पुरुष खिलाड़ी हर क्षेत्र में निराश कर रहे थो तो महिला खिलाड़ियों ने विश्व में भारत का परचम लहराया। रियो ओलंपिक को हम कैसे भुल सकते हैं। जब सभी पदक के प्रबल दावेदार चारों खाने चित हो रहे थे उसी समय बेटियों ने विश्व पटल पर भारत का मान रखा। एक के बाद एक सिंधु और साक्षी ने पदक जीत देश का परचम लहराया। लेकिन क्या आपको पता है कि उन्हें वह सुविधा, संसाधन या कीमत नहीं मिल पाती जिसकी ये हकदार हैं। रियो ओलंपिक के लिए टॉप्स(टारगेट ओलंपिक पोडियम) के लिए 106 खिलाड़ी चयनित हुए थे। इसमें से करोड़ो रुपये लेने वाले कुछ खिलाड़ी ऐसे चित हुए जिसका अंदाजा देश को कभी नहीं था। ओलंपिक में पहली बार जिम्नास्ट में फाइनल तक का सफर तय करने वाली दीपा कर्माकर तो आप सबको याद होगी ही। दीपा सरकार से सिर्फ दो लाख रुपये लेकर फाइनल तक खेली। वहीं भारत के पदक का सूखा खत्म करने वाली साक्षी ने मात्र 12 लाख लिए थे, तो रियो ओलंपिक में एकमात्र रजत पदक जीतने वाली पीवी सिंधु ने 44 लाख रुपये लिए थे। इतने कम पैसे, समय और संसाधन के अभाव में भी इनके हौसले नहीं डिगे। ओलंपिक के कुछ समय के बाद इन सभी खिलाड़ियों को हम भुल गए। फिर ये हमें अगले ओलंपिक में ही याद आएंगे।
दरअसल खेल में हम पुरुष क्रिकेट द्वारा स्थापित मानक से कभी ऊबर नहीं पाए। हमारा हर चीज पुरुष टीम की जीत-हार पर निर्भर करने लगा है। यहां तक जब पड़ोसी देश पाकिस्तान का बहिष्कार करने की बारी आती है तब भी हम क्रिकेट को ही मानक मानते हैं। जबकि उसी समय देश खेल के अन्य प्रतिस्पर्धाओं में पाकिस्तान से भीड़ रहा होता है। और हम सब उससे अंजान बने रहते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए है कि जब क्रिक्रेट पर बहिष्कार की बात करते हैं तो हमें ज्यादा लोग सुनने वाले होते हैं। अन्य खेलों को लेकर ऐसा नहीं है। देश में दूसरे खेलों के दर्शक भी नहीं है। 125 करोड़ की आबादी में हम 11 फुटबॉल खिलाड़ी नहीं दे पाते हैं, जो फीफा जैसे बड़े टूर्नामेंट में देश का प्रतिनिधित्व कर सके। अब भी गांव के बच्चों का फोकस क्रिकेट पर ही रहता है। क्योंकि उन्हें भी इस बात का अहसास होता है कि देश में क्रिकेट ही एक ऐसा खेल रह गया है जिसमें अच्छा प्रदर्शन कर हम दौलत और शोहरत कमा सकते हैं। उन्हें क्रिकेट में भविष्य दिखता है। जबकि अन्य खेलों में बेहतर होने के बावजूद वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। क्योंकि उन्हें इन खेलों में भविष्य नहीं दिखता। आज बीसीसीआइ खेल की सबसे बड़ी संस्था है। जबकि अन्य खेल बोर्ड के बारे में हमे पता भी नहीं होता। वहां न सुविधा होती है और न पैसै। कुछ दिन पहले ही सुनने में आया था कोलकाता के फुटबॉल खिलाड़ियों को मैच खेलने के लिए ट्रेन के जनरल डिब्बे में सफर करना पड़ा था। क्योंकि संस्था उनके लिए तत्काल फ्लाइट टिकट नहीं उपलब्ध करा सकता था। हालांकि ट्रेन में सफर करने का फैसला खुद खिलाड़ियों का था। ऐसे अनकों उदाहरण पड़े हैं जहां क्रिकेट के अलावा अन्य क्षेत्र के खिलाड़ियों को उपेक्षित होना पड़ता है। यहीं कारण है कि आज तक हम क्रिकेट के अलावा अन्य सभी खेल क्षेत्रों में अब भी पिछड़े हैं। रियो ओलंपिक में भारत की निराशजनक प्रदर्शन के बाद भी खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाओं की जग हंसाई हुई थी। यहां तक कि भारत अपने प्रतिभागी खिलाड़ियों के रूम में टीवी और बैठने के लिए कुर्सी तक मुहैया नहीं करा पाया था। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई 2016 में मन की बात में चिंता जताते हुए अन्य क्षेत्र के खिलाड़ियों के आगे आने को कहा था। जिसके लिए ग्रामीण स्तर पर फुटबॉल को बढ़ावा देने की बात हुई थी। लेकिन इसे विडंबना ही कहेंगे उसके बाद न कि कोई सरकारी प्रयास हुई और न ही अन्य क्षेत्रों में कोई सुधार देखने को मिली। अगर भारत अपनी पुरानी यादों से सबक लेते हुए वाकई ओलंपिक और फुटबॉल में बेहतर करने की चाहत रखता है तो इसके लिए खिलाड़ियों को बेसिक स्तर पर जरूरी साधन मुहैया कराने की आवश्यकता है। अन्य खेलों को भी क्रिकेट की तरह पोपुलर बनाने की आवश्यकता है ताकि युवा पीढ़ी क्रिकेट के कंफर्ट जोन से बाहर निकल कर अन्य खेलों में अपना भविष्य तलाश सके।
*लेखक मो तौहिद आलम पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं*
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