आज देश में भ्रष्टाचार,अनाचार ,लूट पाट ,धोखाधड़ी ,डकैती,बलात्कार जैसे अनेक अपराधों का बोलबाला है,ऐसे समाचारों से अख़बार भरे रहते हैं।स्पष्ट है हमारा देश अराजकता की ओर अग्रसर है।यह अब एक गंभीर चिंता का विषय बनता जा रहा है, की देश में अनेक कठोर कानून होते हुए भी अपराधों पर कोई लगाम नहीं लग पा रही है। आखिर क्या कारण है, नित्य प्रति अपराधों में वृद्धि होती जा रही है? क्यों अपराधियों के हौंसले बुलंद होते जा रहे हैं? क्यों अपराधियों के मन से कानून का डर समाप्त होता जा रहा है?
प्रस्तुत है एक विश्लेषण ——-
यदि कोई व्यक्ति मानसिक रूप से विकृत होने के कारण कोई अपराध करता है उसके लिए कोई कानून, कोई सख्ती उसको अपराध करने से नहीं रोक सकती। ऐसे अपराधियों को अपराध करने से रोकने के लिए,समाज के हर व्यक्ति को, अपने परिजन,मित्र ,जानकार व्यक्ति जो मानसिक रूप से विकृत है, के प्रत्येक व्यव्हार पर पर नजर रखनी होगी और उसको अपराध करने से रोकने के लिए सचेत रहना होगा, इसका यही एक मात्र विकल्प हो सकता है,क्योंकि ऐसे अपराधी को कानून भी कोई सजा दे पाने में अक्षम रहता है।यहाँ पर ऐसे व्यक्ति के अपराध विचारणीय भी नहीं है।
सामान्य मानसिक स्थिति वाला कोई भी व्यक्ति अपराध करने का साहस तब करता है, जब उसे कानूनी शिकंजे में फंसने की सम्भावना नहीं होती,या उसे कानूनी शिकंजे से निकलने के लिए पर्याप्त साधन होते हैं।कानूनी दांवपेंच इस्तेमाल कर,सबूतों को अपने प्रभाव से कम करने या मिटा देने की क्षमता रखता हो और अपने को पाक साफ निकाल ले जाने की सम्भावना होती है।यदि कोई व्यक्ति पूर्व समय में किसी अत्याचार का शिकार हुआ हो अर्थात किसी अपराधिक गतिविधि से पीड़ित हो. वह बदले की भावना के वशीभूत होकर अपराध में लिप्त देखा जा सकता है. हमारे देश में पुलिस व्यवस्था एवं न्याय प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार उनकी संवेदनहीनता और समाज के प्रति उदासीनता,एक बहुत बड़ा कारण बना हुआ है। साथ ही न्यायालय के निर्णय आने में लगने वाला लम्बा समय जिसमे कभी कभी बीस वर्ष या अधिक भी लग जाते हैं, न्याय में विलम्ब अपराधियों के हौसले निरंतर बढ़ाते हैं।
अपराधों का मुख्य कारण होता है की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव, अर्थात रोटी कपडा और मकान जैसी मूल भूत आवश्यकताओं का अभाव और उसके लिए संघर्ष अपराधों को जन्म देता है। इन्सान अपनी शराफत अपनी इंसानियत अपनी संवेदनाएं भूल जाता है और किसी भी प्रकार से अपनी मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चला जाता है। फिर चाहे उसे पाने के लिए अपराध का सहारा ही क्यों न लेना पड़े।यही मुख्य वजह है,जो गरीब देशों में अपराधों को बढ़ावा देती है,और गरीब देश अपराधों के गढ़ बन जाते हैं।
दूसरा कारण आपसी रंजिश या बदले की भावना अपराधों में वृद्धि करती है यही कारण है जब भी किसी शहर में सांप्रदायिक दंगे होते हैं तो एक न रुक पाने वाला क्रम चलता रहता है.अतः रोकने के लिए शासन स्तर पर विशेष प्रयास करने पड़ते हैं और सतत निगरानी के पश्चात् दंगों का सिलसिला रुक भी जाता है. आजादी के पश्चात् पिछले छः दशको का अनुभव तो यही बताता है.
तीसरा मुख्य कारण हमारे समाज में स्वः स्फूर्त इंसानियत का अभाव है।उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति किसी दुकानदार से कोई वस्तु खरीदने जाता है और उसे सामान की पूरी कीमत चुका देता है,क्यों? उसके पीछे मुख्य दो कारण होते हैं,उसे डर है की यदि उसने वस्तु का पर्याप्त मूल्य नहीं चुकाया तो दुकानदार उसका अपमान करेगा,उसे मरेगा पीटेगा,और यदि वह स्वयं सक्षम नहीं हुआ तो अन्य उपायों से विरोध करेगा,पडोसी दुकानदारों के साथ मिल कर विरोध करेगा या कानूनी सहायता के लिए पुलिस बल को बुलाएगा,इत्यादि।अर्थात ग्राहक एक सम्मानीय ग्राहक न होकर एक अपराधी की श्रेणी में आ जायेगा और प्रतिक्रिया स्वरूप दूकानदार उसे एक अपराधी की भांति दण्डित करने का प्रयास करेगा।अतः कानून का डर उसे अपराध करने से रोकता है. दूसरा कारण होता है सामान खरीदने वाला(ग्राहक) इंसानियत को प्रमुखता देता है, और न्यायप्रिय है,उसे मालूम है दुकानदार ग्राहक की सेवा अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए करता है, उसके अपने खर्चे इस आमदनी से पूरे होते हैं,वह भी सामान किसी उत्पादक या व्यापारी से खरीद कर लाता है। अतः उसे उस वस्तु की उचित कीमत देकर संतुष्ट करना हमारा कर्तव्य है।यह भावना उसे अपराध नहीं करने देती,और वह वस्तु की पूरी कीमत दुकानदार को चुकाता है।
अपराध का एक कारण होता है अपने धन अपनी संपत्ति की पर्याप्त सुरक्षा न करना या उसकी रक्षा के प्रति लापरवाह होना।यदि हम अपने धन,अपने जेवर को सड़क पर रख दें,या निर्जन सड़क पर गहने लाद कर निकल पड़ें, तो क्या आप उसकी सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकते हैं? क्या इस प्रकार पुलिस या स्थानीय प्रशासन पर गैर जिम्मेदार होने का आरोप लगाना ठीक होगा? अतः यदि अपने घर को बिना ताला लगाये या पर्याप्त सुरक्षा का इंतजाम किये छोड़ कर चले जाते हैं तो क्या हम चोरों को आमंत्रण नही दे रहे होते हैं? सड़क पर नोटों की गड्डियां लहराते हुए निकलते है या बहुत सारे गहने पहन कर निकलते हैं, चोरी और छीना झपटी होने की संभावनाओं को हम स्वयं बढ़ा रहे होते हैं।
आप खूब परिश्रम कर कामयाबी प्राप्त करते हैं और समृद्धशाली हो जाते हैं,आप अपनी समृद्धि को उत्साहवश प्रदर्शन भी करने लगते हैं,आपका ऐश्वर्य आपके पडोसी,आपके रिश्तेदारों को अखरने लगता है वे आप से इर्ष्या करने लगते हैं।अब आपको अपनों से ही अपने अहित की आशंका लगने लगती है। स्पष्ट है यदि आप अपनी समृद्धि को प्रदर्शित न करें, अपने व्यव्हार में बहुत बड़ा बदलाव न लायें, अपने व्यव्हार में नम्रता रखें तो आप अधिक सुरक्षित रह सकते हैं।
इसी प्रकार यदि कोई महिला अपने अपर्याप्त पहनावे द्वारा अंगप्रदर्शन करती है,तो उसके साथ दुराचार की संभावना भी बढ़ जाती है।यह कटु सत्य है, पूरे समाज को कभी भी व्यवस्थित नहीं रखा जा सकता, समाज में हर मानसिकता का व्यक्ति विद्यमान होता है,और यह भी सत्य है पुलिस या प्रशासन प्रत्येक स्थान पर अपनी निगेहबानी नहीं कर सकता। आज यह भी सत्य है लचर कानून व्यवस्था और धीमी न्याय प्रक्रिया अपराधियों को निडर बनाती है।यह भी उचित है की हम महिलाओं को ड्रेस कोड नहीं दे सकते ,उनके मोबाइल रखने पर या बहार निकलने पर पाबन्दी नहीं लगा सकते। यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आघात होगा।अतः हमें महिलाओं को उनकी अपनी सुरक्षा के उपाय सुझाने होंगे, उन्हें नियंत्रित हो कर अपने हित में उचित पहनावा रखने के लिए प्रेरित करना होगा,आखिर अंग प्रदर्शक पहनावा उनके लिए जोखिम बढाता है। क्योंकि टक्कर हो जाने या दुर्घटना के भय से हम गाड़ी या स्कूटर चलाना तो बंद नहीं कर सकते,परन्तु गाड़ी चलाने वाले को सुरक्षित चलने की हिदायत तो दे सकते हैं। बाकि उसकी मर्जी वह अपने भविष्य का साथ खिलवाड़ करता है या संभल कर गाड़ी चलाता है। इसी प्रकार से महिलाओं की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता,और न ही लगना चाहिए,सिर्फ उन्हें सुरक्षित रहने और आत्म रक्षा के उपाए सुझाने होंगे।
इस लेख का आशय यही है की हमें पुलिस या प्रशासन के भरोसे न रहकर स्वयं अपने धन, दौलत, शारीरिक सुरक्षा,महिलाओं के सम्मान की रक्षा करने लिए तत्पर रहना चाहिए। सभी को सचेत रहना ही एक मात्र उपाय है जो हमें देश में बढ़ रही अराजकता के माहौल में अपने को सुरक्षित रख सकता है.
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जरा सोचिये कहीं हम भी तो……….
बन्दरों की एक टोली थी……..उनका एक सरदार भी था बन्दर फलो के बगिचों मे फल तोड़ कर खाया करते थे! माली की मार और डन्डे भी खाते थे, रोज पिटते थे!
एक दिन बन्दरों के सरदार ने सब बन्दरों से विचार-विमर्श कर निश्चय किया कि रोज माली के डन्डे खाने से बेहतर है, हम अपना फलों का बगीचा लगा लें और फिर फल खायें , कोई रोक टोक नहीं! और हमारे अच्छे दिन आ जाएंगे! सभी बन्दरों को यह प्रस्ताव बहुत पसन्द आया । जोर शोर से गड्ढे खोद कर फलो के बीज बो दिये गये!पूरी रात बन्दरों ने बेसब्री से इन्तज़ार किया। सुबह देखा गया अभी तो फलो के पौधे भी नहीं आये ! दो चार दिन बन्दरों ने और इन्तज़ार किया , परन्तु पौधे नहीं आये! Restless बन्दरों ने मिट्टी हटाई – देखा फलो के बीज जैसे के तैसे मिले!
बन्दरों ने कहा – लोग झूठ बोलते हैं । हमारे कभी अच्छे दिन नही आने वाले । हमारी किस्मत में तो माली के डन्डे ही लिखे हैं! बन्दरों ने सभी गड्ढे खोद कर फलो के बीज निकाल कर फेंक दिये । पुन: अपने भोजन के लिये माली की मार और डन्डे खाने लगे! – जरा सोचना कहीं हम बन्दरों वाली हरकत तो नहीं कर रहे।
कांग्रेस के 60 साल…….भा,ज.पा.के 3 साल
एक परिपक्व समाज का उदाहरण पेश करिये बन्दरों जैसी हरकत मत करिये .. देश धीरे धीरे बदल रहा है नई नई ऊंचाइयां छू रहा है , जो जो कदम वह भी जोखिम भरे बहुत पहले ले लेने चाहिए थे वह अब लिये जा रहे! जरूरत है तो सिर्फ और सिर्फ जनता के साथ की क्योंकि बहुत बड़े बड़े काम होने अभी बाकी है!……………स.शी.