{वृद्धाश्रम के विकल्प को वर्तमान समय में समाज द्वारा अपनाया जाना स्वीकार्य नहीं हो पा रहा है . परन्तु भविष्य में यह मुख्य आवश्यकता के रूप उभर कर आने वाला है. जो सभी बुजुर्गों और संतान को स्वीकार्य होगा.और जीवन को सहजता प्रदान करेगा.और यह भी मानव विकास के रूप में देखा जायेगा.}
पिछले पचास वर्षों में जितनी तेज रफ़्तार से मानव ने उन्नति की है,पहले कभी नहीं की.तीव्र विकास गति ने मानव के रहन-सहन, खान-पान,और स्वास्थ्य सेवाओं में क्रन्तिकारी परिवर्तन किये हैं.और भविष्य में यह विकास की गति और भी तीव्र होगी. विकास के साथ साथ सामाजिक परिवर्तनों ने पूरे समाज को झकझोर दिया है. संयुक्त परिवार विलुप्त होते जा रहे हैं. पारंपरिक मान्यताएं,अवधारणायें निरंतर खंडित हो रही हैं.स्वच्छंदता का बोलबाला हो रहा है.युवा पीढ़ी नित नए आयाम तय कर रही है. अब चाहे फेशन का प्रश्न हो ,खानपान का हो,या दिनचर्या का सवाल हो, सब कुछ उलट पुलट हो चुका है. उपरोक्त सभी बदलावों से सर्वाधिक प्रभावित हुआ है तो वह है आज का वृद्ध .जो असहाय है,जिसके आय के स्रोत लगभग सूख चुके हैं,और परिवार में उपेक्षा का शिकार है. संतान के दिल में उसके लिए सम्मान का अभाव होता जा रहा है,घरों में उसके रहने के लिए पर्याप्त स्थान का भी अभाव हो गया है. आज का बुजुर्ग स्वास्थ्य की दृष्टि से इतना निर्बल भी नहीं है की वह अपने जीवन को चंद क्षणों का मेहमान मान ले. मौत को गले लगाना भी कोई आसान नहीं होता. पृकृति का विधान भी ऐसा है जो व्यक्ति नहीं मरना चाहता उसे मौत आसानी से आ जाती है,परन्तु जीवन से निराश व्यक्ति जो जीना नहीं चाहता उसे मौत नहीं आती. जब परिवार में वे समायोजित नहीं हो पाते उन्हें अपना ही घर यातनागृह नजर आने लगे,तो असहाय बुजुर्ग क्या करे? उपरोक्त जैसी हालातों के शिकार बुजुर्गों को यदि वृद्धाश्रम का सहारा प्राप्त होता है,तो बुजुर्गों को जीने का मकसद मिल जाता है. मानव समाज अमानवीयता के कलंक से बच जाता है,संतान को बुजुर्गो के कारण हो रही मानसिक दुविधाओं से छुटकारा मिल जाता है, उन्हें निश्चिन्तता का आभास होता है.बुजुर्ग की जीवन संध्या कलुषित और अपमानित होने से बच जाती है.
वृद्धाश्रम जहाँ आज की आवश्यकता बन गयी है वहीँ भविष्य में मानव विकास का आधार बनेंगे. अभी हमारे समाज में वृद्धाश्रमों का खुलना,उसमें जाकर बुजुर्गों का रहना या संतान द्वारा उन्हें आश्रम में रहने की संस्तुति देना ,संस्कारहीनता और संतान की नकारात्मक सोच का परिणाम माना जाता है. संतान को अपने बुजुर्गों के प्रति अहसान फरामोश के रूप में देखा जाता है.और नए ज़माने के अभिशाप के रूप में माना जाता है. किसी भी क्रन्तिकारी परिवर्तन को स्वीकार करने में समय लगना स्वाभाविक प्रक्रिया है.परन्तु परिवर्तन तो होना ही है उसे कोई रोक नहीं सकता,यह भी कटु सत्य है. अतः वृद्धाश्रम की अवधारणा को सामाजिक संवेदनहीनता अथवा संतान की कर्त्तव्य हीनता के रूप में न देख कर समय की आवश्यकता और वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना होगा.
वृद्धाश्रमों को सामाजिक समर्थन का अभाव ;
यद्यपि देश के सभी छोटे व् बड़े शहरों में वृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैं.परन्तु यह विस्मयकारी तथ्य है,की आश्रमों की कुल क्षमता का उपयोग नहीं हो पा रहा है.अर्थात आश्रम के प्रवासी बुजुर्गो की संख्या आश्रम की क्षमता से बहुत कम रहती है. जो सिद्ध करता है की अभी हमारा समाज विभिन्न जीवन शैली पारंपरिक कारणों और देश की पारिवारिक संरचना के कारण आश्रमों को स्वीकार नहीं कर पा रहा है. आगे की पंक्तियों में समाज के समर्थन के अभाव पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है.
विकसित देशों में जहाँ ओल्ड एज होम सामान्य सी बात हो गयी है,हमारे देश में वृद्धाश्रम की अवधारणा को अपनाने में हिचक क्यों?
- हमारे देश में माता-पिता और बच्चे का कम से कम पच्चीस वर्ष तक साथ रहता है जब तक बच्चे की शिक्षा पूर्ण हो और रोजगार से लग जाये बच्चे के अभिभावक अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं. उसे हर प्रकार का योगदान देते हैं.यदि रोजगार या कारोबार घर का अपनाया जाता है तो जीवन पर्यंत माता-पिता और संतान का सान्निध्य बना रहता है.क्योंकि माता पिता अपने बच्चे के साथ भावनात्मक रूप अत्यधिक जुड़े होते हैं तो उन्हें त्यागना अथवा उन्हें छोड़ कर आश्रम की शरण लेना उनके लिए असहनीय होता है. परन्तु विकसित देशों में माता पिता बच्चे की जिम्मेदारी सिर्फ दस या बारह वर्ष तक ही निभाते हैं.तत्पश्चात बच्चे स्वयं अपनी जिम्मेदारी सम्हालते हैं,या सरकार अपने साधन उपलब्ध कराती है.अतः माता-पिता एवं बच्चों (संतान)के बीच जुडाव कम ही हो पाता है. वे भावनात्मक रूप से कम संबद्ध हो पाते हैं.इसीलिए वृद्धाश्रम जाने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती.
- हमारे समाज में किसी वृद्ध को वृद्धाश्रम में भरती कराना अथवा वहाँ बसने के लिए मजबूर करना संतान की कर्तव्यहीनता के रूप में देखा जाता है.यानि की उसकी संतान अपने कर्तव्य निभाने में असफल है.अतः संतान के लिए बुजुर्गो के साथ रहना असहनीय होने के बावजूद लोक लाज के कारण बुजुर्गों को आश्रम भेजने से बचते हैं.कभी कभी उनकी यह कथाकथित लोकलाज या सम्मान बुजुर्गों को नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर देता है. संतान समाज की नजरों में निकम्मा साबित नहीं होना चाहती और यह सामाजिक सोच वृद्धाश्रम की अवधारणा को स्वीकार करने में बाधक बनती है.
- बुजुर्ग जिस समाज में जीवन पर्यंत रहते आये हैं अर्थात अड़ोसी पडोसी, नाते रिश्तेदारों से जीवन के अंतिम क्षणों में उनसे विलग होकर वृद्धाश्रम में जाकर बसना उन्हें असहज लगता है. वैसे भी जीवन के इस पड़ाव पर उनकी नयी परिस्थितियों में सामंजस्य बैठने की क्षमता लगभग समाप्त हो जाती है.अतः नए वातावरण में स्वयं को ढाल पाने में अपने को असमर्थ पाते हैं.और वृद्धाश्रम जा कर रहने से परहेज करते हैं.
- आज का प्रौढ़ व्यक्ति पचास वर्ष पूर्व वृद्ध के मुकाबले कही अधिक पढ़ा लिखा और संवेदनशील है. स्वास्थ्य की दृष्टि से भी पूर्व समय की अपेक्षा पर अधिक स्वस्थ्य होते हैं. वृद्ध होकर भी उसमें “अभी तो मैं जवान हूँ” का अहसास रहता है. अतः कार्य मुक्ति की इस अवस्था को अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्र रूप से (संतान से अलग रह कर भी )बिताना चाहता है. यही कारण है की वृद्धाश्रम जाकर वहाँ के नियमों में बंधना और पराश्रित होकर रहना उसे स्वीकार्य नहीं होता.जब तक वह पूर्णतयः अशक्त न हो जाए.
- अनेक बुजुर्ग अधिक आयु तक भी अपने कारोबार,अपने व्यवसाय में लिप्त रहते हैं.अतः उनके लिए अपने व्यापार अपने कारोबार को छोड़कर वृद्धाश्रम में रहना संभव नहीं होता.वे स्वयं बिल्कुल अकेले रहकर भी अपने व्यवसाय के साथ रहकर जीना उचित मानते हैं.
- उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में स्थित “आभा मानव मंदिर वृद्ध सेवा आश्रम” को छोड़ कर हमारे देश के अन्य वृद्धाश्रम उच्च स्तरीय मानक नहीं अपनाते. जहाँ पर वृद्धों को शुद्ध भोजन,उच्च स्तरीय रहन-सहन की सुविधाएँ एवं चिकित्सा सुविधाएँ प्राप्त हो सकें. अतः बुजुर्ग आश्रम को आश्रय बनाने से पूर्व एक अनाथालय जैसी कल्पना रखता है अथवा एक कैदी जैसी जिन्दगी के रूप में देखता है ,जो उन्हें अपमान जनक जीवन का अहसास कराता है. इसी कारण अनेक परेशानियों के बावजूद मध्य आय वर्ग या उच्च आय वर्ग के परिवारों के बुजुर्ग वृद्धाश्रम की ओर उन्मुख नहीं हो पाते. अतः वृद्धाश्रम की अवधारणा को सफल बनाने के लिए वृद्धाश्रम की व्यवस्था को स्वास्थ्यकर ,सुविधापरक,एवं सम्माननीय जीवन के विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना होगा. ताकि कोई भी बुजुर्ग वहाँ रह कर अपने को अपमानित या अभिशप्त सा महसूस न कर पाए.
वृद्धाश्रम के विकल्प को वर्तमान समय में समाज द्वारा अपनाया जाना स्वीकार्य नहीं हो पा रहा परन्तु भविष्य में यह मुख्य आवश्यकता के रूप उभर कर आने वाला है. जो सभी बुजुर्गों और संतान को स्वीकार्य होगा.और जीवन को सहजता प्रदान करेगा.और यह भी मानव विकास के रूप में देखा जायेगा.क्योंकि वृद्धाश्रम भी एक व्यवसायीकरण की परिणति मानी जायेगी न की पारिवारिक कलह का दुष्परिणाम. जो मानव मूल्यों को उन्नत होते देखेगी. उदहारण के तौर पर प्राचीन काल में शिक्षा ग्रहण करने का एक मात्र साधन गुरुकुल होते थे जिसमे चंद छात्र अर्थात पांच से दस तक छात्र ही शिक्षा ग्रहण करते थे,जो बाद में व्यवसायीकरण होने पर स्कूल.विद्यालयों,महा विद्यालयों ,विश्व विद्यालयों में परिवर्तित हो गए जहाँ हजारों की संख्या में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं.जिन्हें लायब्रेरी,प्रयोगशालाएं जैसी मूलभूत आवश्यकताएं भी उपलब्ध हो पाती हैं,प्रत्येक विषय के विशेषज्ञ अध्यापकों के ज्ञान का लाभ मिल पाता है.जो की सामूहिक स्तर पर ही सभव है. इसी प्रकार पहले यात्रा के साधन के रूप में बैलगाड़ी ,ऊँटगाड़ी या घोडागाडी होते थे. जिनमे चंद लोग सफर कर सकते थे और यात्रा की गति भी बहुत धीमी होती थी. परन्तु व्यवसायीकरण के पश्चात आज रेलगाड़ी,बस,हवाई जहाज जैसे अनेक साधन हो गए जो सैंकडो यात्रियों को तीव्र गति से यात्रियों को गंतव्य स्थान तक पहुंचा देते हैं. ऐसे अनेको उदहारण हैं,पुराने समय में गेहूं से आटा तैयार करने के लिए प्रत्येक घर में अपनी चक्की होती थी, जिससे अनाज पीसना एक कष्ट साध्य कार्य था ,परन्तु व्यवसायीकरण के पश्चात आज चंद पैसे खर्च कर मोहल्ले की आटा चक्की सबके लिए आटा पीस देती है और अब तो आटा मिलें पूरे शहर के लिए आटा पीस कर भेज देती हैं. वृद्धाश्रमों को भी एक ऐसे स्थान के रूप देखा जाना चाहिए.जहाँ एक छत के नीचे शहर के सभी वृद्ध रह सकेंगे.जहाँ पर उनके खाने पीने दवा- दारू,रहन सहन,मनोरंजन आदि सभी सुविधाएँ उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप सामूहिक रूप से उपलब्ध कराई जा सकेंगी. चंद कर्मचारी सभी वृद्धों की जरूरतों की पूर्ती कर सकेंगे. सभी बुजुर्ग अपनी आयु वर्ग के साथियों के साथ रहकर सहजता से जीवन संध्या को बिता सकेंगे. मानव सभ्यता अपने बुजुर्गों को सम्मान जनक,सुविधाप्रद जीवन प्रदान कर गौरवान्वित हो सकेगी.
शांति पूर्ण जीवन संध्या(वृद्धावस्था )ही विकसित मानव समाज की सफलता का द्योतक है.
Satysheel ji aapne bahut mahatwpoorn aur samaj ki jwalant samasya ki or dhyan aakarshit karne ka kaam kiya hai. Auron ki chhodiye aaj mujhko bhi iski upyogita lag rahi hai .
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समर्थन के लिए धन्यवाद अशोक दूबे जी, आशा करता हूँ मेरे अन्य लेख भी आपको पसंद आएंगे.कृपया अपनी प्रतिक्रिया देते रहें,और
मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहें.
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