आजादी के पश्चात् अस्तित्व में आये अनेक व्यापार संगठनों के जो नेता कहलाते हैं, वे सिर्फ व्यापारी को मूर्ख बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं,अपना राजनैतिक भविष्य सुनिश्चित करते हैं. क्योंकि वे तो विशिष्ट व्यक्ति बन जाते हैं, उन्हें भरण पोषण की समस्या क्यों आने वाली ? समृद्ध व्यापारी-कारोबारी भी यही सोचते हैं की हमें क्या आवश्यकता है, सरकार से इन समस्याओं को लेकर उलझने की.
- स्वयं के पैसे से व्यापार शुरू करता है।
- व्यापार की पूरी जिम्मेदारी व्यापारी की।
- व्यापार जमाने या चलाने के लिए पूरी तरह से मेहनत करता है।
- नुकसान होने पर कोई सरकार की जिम्मेदारी नहीं।
- लेकिन मुनाफा में सरकार का हक होता है, टैक्स के रूप में।
- अपने पैसे से अपना व अपने परिवार का इलाज या दवाइयां का खर्च उठाता है.
- अपने पैसे से सभी यात्रा (पारिवारिक या व्यापारिक) करता है।
- अपने परिवार के सदस्यों के लिए अपने पैसे से पढ़ाई का खर्च उठाता है।
- व्यापारी कभी रिटायरमेंट नहीं लेता व न ही रिटायर होने पर कोई सरकार से पेंशन पाता है।
- व्यापारी को कोई महंगाई भत्ता नहीं मिलता।
- व्यापारी को कोई छुट्टी नहीं, अगर किसी कारण अवकाश पर जाता है तो परिवार के एक सदस्य की अतिरिक्त डयूटी लगायी जाती है।
- सबसे बड़ी बात व्यापारी समान बेचकर जनता से टैक्स वसूल कर सरकार को देता है, जिस पर देश की सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था टिकी होती है. जिससे देश के सारे प्रशासनिक खर्चे चलते हैं और स्वास्थ्य सेवाओ पर खर्च, देश की सुरक्षा और देश के विकास के कार्य किये जाते हैं.
फिर भी निजी कारोबारी अपने हक़ के लिए कोई लडाई नहीं लड़ता, कभी कोई आन्दोलन नहीं करता. सरकार से मांग नहीं करता कि उसे भी अपने कठिन दिनों में भरण पोषण की सरकारी गारंटी चाहिए. सरकारी खजाने को भरने में भरपूर सहयोग देने वाले व्यापारी या निजी कारोबारी के साथ इतना अन्याय पूर्ण व्यव्हार क्यों? सरकारी कर्मचारियों को भर भर के पेंशन और समस्त सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाती हैं जो उनकी आवश्यकता से कहीं अधिक है, परन्तु व्यापारी या अपने कारोबार करने वाले को सरकार न्यूनतम भरण पोषण की सुविधा भी देने को तैयार नहीं है. निजी कारोबारी या व्यापारी भी बूढा होता है,वह भी अनेक बार असहाय होता है. उसे भी जीवन में अनेक प्रकार की त्रासदियों जैसे कारोबार के उतार चढाव,व्यापारिक स्थल पर आगजनी, चोरी, डकैती, लूटमार, की घटनाओं से गुजरना पड़ता है.
शायद सरकारी स्तर पर विदेशी गुलामी वाली सोच अभी जा नहीं पाई है, व्यापारी तो शोषण के लिए बना है. आजादी के पश्चात् भी वह पूर्व की भांति गुलामी ही भुगत रहा है. उसे कोई भी नागरिक अधिकार देने को तैयार नहीं है. सरकारी कर्मचारी अब भी व्यापारी को बकरे की भांति देखते हैं अर्थात उनकी मानसिकता है कि उसे जितना भी शोषित कर सकते हो करो, उनकी निगाह में उनका कोई सम्मान नहीं है,क्योंकि वे तो सरकार के कारिंदे हैं अतः श्रेष्ठ हैं, शासक हैं और कारोबारी सिर्फ शासित?
व्यापार संगठन के जो नेता बनते हैं वे सिर्फ व्यापारी को मूर्ख बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं क्योंकि वे तो विशिष्ट व्यक्ति बन जाते हैं, उन्हें भरण पोषण की समस्या क्यों आने वाली? समृद्ध व्यापारी भी यही सोचते हैं की हमें क्या आवश्यकता है, सरकार से इन समस्याओं को लेकर उलझने की. जब तक स्वयं ऐसे परिस्थितियों का शिकार नहीं होते उन्हें कोई अहसास नहीं होता किसी अन्य के दुःख का और जब वह कभी निजी तौर पर दुर्भाग्य का शिकार होता है तब कोई उसके साथ नहीं होता.सब उससे किनारा कर चुके होते हैं. मैंने स्वयं अनेक करोड़पतियों को खाक पति होते देखा है जिन्हें भयंकर मुसीबतों का सामना करना पड़ा और उनका अंत बहुत ही पीड़ा दायक हुआ. क्या सरकार का दायित्व सरकारी कर्मियों के हितों को सोचने तक सीमित है,जब सरकार की आमदनी बढती है तो नेता और सरकारी नेता आपस में बाँट कर सरकारी राजस्व का लुत्फ़ उठा लेते हैं.शेष जनता सिर्फ आश्वासनों के भरोसे ठगने के लिए रह जाती है.