” उदाहरण के तौर पर एक प्राइमरी का सरकारी अध्यापक चालीस से पचास हजार तक वेतन लेता है फिर भी शिक्षा का स्तर निजी विद्यालयों के मुकाबले बहुत निम्न होता है. विचारणीय बात यह है की सरकारी अध्यापक अपने बच्चे को निजी विद्यालय में पढाना उचित समझता है, जो इस बात का सबूत है की वह स्वयं अपने स्कूल में बच्चों को किस स्तर का शिक्षण देता है. कुछ सरकारी अध्यापक तो वेतन स्वयं लेते हैं और स्कूल में पढ़ाने के लिए एक (डमी) निजी अध्यापक को नियुक्त कर देते हैं, जो उसे मात्र आठ या दस हजार में उपलब्ध हो जाता है. इस प्रकार से सरकारी राजस्व का दुरूपयोग होता है और एक बेरोजगार अध्यापक आधे चौथाई कीमत में कार्य को मजबूर होता है. “
सरकारी कर्मियों के वेतन निर्धारण के लिए गठित किये गए वेतन आयोग, तत्कालीन महंगाई का मूल्यांकन करते हुए हर दस वर्ष के अन्तराल पर केंद्र सरकार को अपने सुझाव प्रस्तुत करता है. जिसे मानना या न मानना सरकार पर निर्भर होता है. इस प्रकार से प्रत्येक दस वर्ष बाद वेतन आयोग की रिपोर्ट आती रहती थी और अक्सर सरकारी कर्मियों की यूनियन के दबाव के कारण वेतन आयोग की सिफारिशों को पूर्णतया केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार भी कर लिया जाता था. अन्यथा सरकारी कामकाज ठप्प होने की संभावना बनी रहती थी. परन्तु पांचवे वेतन आयोग के वेतन निर्धारण के लिए दिए गए सुझावों के पश्चात् सरकारी कर्मियों के वेतन बेतहाशा बढ़ गए और साथ ही आगामी वर्षों में बढ़ने वाली महंगाई के लिए एक महंगाई सूचकांक निर्धारित कर दिया गया, जिसके अनुरूप प्रत्येक छः माह पश्चात् महंगाई भत्ता स्वतः बढ़ता रहता है. क्योंकि वेतन आयोग के अधिकतर सदस्य भी सरकारी अधिकारी ही होते हैं. अतः उन्हें तो अपने स्वयं के लाभ को भी देखकर वेतन निर्धारण करने का पक्षधर होना होता है और उन्हें सरकार के खजाने का आभास भी होता है, किस प्रकार जनता से प्राप्त कर संग्रह को अधिक से अधिक अपने पक्ष में किया जाय. उन्हें यह भी पता होता है की सरकार से नए वेतनमान तो स्वीकार करा ही लेंगे. सरकार में बैठे नेता भी सोचते हैं की हमें सरकार चलानी है तो नौकर शाही को नाराज नहीं कर सकते अन्यथा उनकी नैतिक या अनैतिक सभी आमदनी को विराम लगने की सम्भावना होती है.
पांचवे वेतन आयोग के नक्शेकदम पर चलते हुए ,छठे और सातवें वेतन आयोग भी हर बार सरकारी कर्मियों के वेतनमान बेतहाशा बढ़ाते चले गए. परिणाम स्वरूप सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान के साथ तदनुसार सेवा निवृत कर्मियों को दी जाने वाली भारी पेंशन के कारण सरकारी राजस्व पर भारी बोझ पड़ने लगा. जिससे जनता के विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं, और असंगत वेतन वृद्धि का सर्वाधिक खामियाजा बेरोजगारों को भुगतना पड़ रहा है. लगभग सभी सरकारी क्षेत्रों में नयी भर्तियाँ बंद कर दी गयी हैं या बहुत कम कर दी गयी हैं. वर्तमान में कार्यरत कर्मचारी चार चार व्यक्तियों के कार्य का बोझ सहन करने को मजबूर हैं. अब सभी विभाग किसी भी कार्य को निजी क्षेत्र के लोगो से ठेके (निविदा द्वारा) पर कार्य कराते हैं, जिसके माध्यम से उनका कार्य बहुत ही सस्ते में हो जाता है. और मार्किट की प्रतिद्वंद्विता में टिके रहने की सम्भावना बनी रहती है, क्योंकि सरकारी व्यक्ति द्वारा कार्य कराना (अत्यधिक वेतनमान,सेवा शर्तें और सरकारी कर्मी कार्य के प्रति निष्ठां में कमी के कारण) बहुत महंगा पड़ता है. ठेकेदार अपने कर्मचारियों को बहुत कम वेतन देकर कार्य करा लेता है क्योंकि बेतहाशा बेरोजगारी के चलते उन्हें बहुत कम पगार पर कर्मचारी उपलब्ध हो जाता है. इस प्रकार वेतन आयोग ने अनेक युवको की नौकरी खत्म कर बेरोजगारी बढाने में आग में घी का काम कर रहा है.
वर्तमान में एक सरकारी क्लर्क के वेतन में, मार्किट में प्रचलित वेतन मान के अनुसार निजी स्तर पर चार व्यक्ति कार्य कर सकते हैं, तो फिर सरकारी व्यक्ति को इतना अधिक वेतनमान देने का औचित्य क्या है? ठीक है सरकारी कर्मी को निजी कर्मी से कुछ अधिक वेतनमान दिया जा सकता है परन्तु चार गुना या छः गुना क्यों? इतने अधिक वेतन देने के पश्चात् भी जबाव देही के अभाव में सरकारी कर्मी निजी कर्मी से आधा कार्य भी नहीं करता, और भ्रष्टाचार में भी संलिप्त रहता है सो अलग.
उदाहरण के तौर पर एक प्राइमरी का सरकारी अध्यापक चालीस से पचास हजार तक वेतन लेता है फिर भी शिक्षा का स्तर निजी विद्यालयों के मुकाबले बहुत निम्न होता है. विचारणीय बात यह है की सरकारी अध्यापक अपने बच्चे को निजी विद्यालय में पढाना उचित समझता है, जो इस बात का सबूत है की वह स्वयं अपने स्कूल में बच्चों को किस स्तर का शिक्षण देता है. कुछ सरकारी अध्यापक तो वेतन स्वयं लेते हैं और स्कूल में पढ़ाने के लिए एक (डमी) निजी अध्यापक को नियुक्त कर देते हैं, जो उसे मात्र आठ या दस हजार में उपलब्ध हो जाता है. इस प्रकार से सरकारी राजस्व का दुरूपयोग होता है और एक बेरोजगार अध्यापक आधे चौथाई कीमत में कार्य को मजबूर होता है.
क्या सरकार का कर्तव्य अपने कार्यरत कर्मचारियों तक सीमित हैं जिसे जनता की हितों से कोई सरोकार नहीं है,बेरोजगार युवाओं के हितों को ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं है? क्या वेतन आयोग जिसका गठन एक उचित और न्याय पूर्ण आंकलन के लिए किया जाता है उसे सिर्फ सरकारी कर्मियों को रेवड़ी बाँटने के लिए नियुक्त किया जाता है? जब वेतन आयोग जनता के साथ न्याय नहीं कर सकता तो उसे विघटित कर कोई और विकल्प बनाना चाहिए.जिससे सरकारी राजस्व में लूट को रोका जा सके और अनेक बेरोजगारों को उचित वेतनमान के साथ आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो सके.(SA-250B)